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पत्नी॑व पू॒र्वहू॑तिं वावृ॒धध्या॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ पुरु॒धा विदा॑ने। स्त॒रीर्नात्कं॒ व्यु॑तं॒ वसा॑ना॒ सूर्य॑स्य श्रि॒या सु॒दृशी॒ हिर॑ण्यैः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

patnīva pūrvahūtiṁ vāvṛdhadhyā uṣāsānaktā purudhā vidāne | starīr nātkaṁ vyutaṁ vasānā sūryasya śriyā sudṛśī hiraṇyaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पत्नी॑ऽइव। पू॒र्वऽहू॑तिम्। व॒वृ॒धध्यै॑। उ॒षसा॒नक्ता॑। पु॒रु॒धा। विदा॑ने॒ इति॑। स्त॒रीः। न। अत्क॑म्। विऽउ॑तम्। वसा॑ना। सूर्य॑स्य। श्रि॒या। सु॒ऽदृशी॑। हिर॑ण्यैः ॥ १.१२२.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:122» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्री-पुरुषों के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे सरलस्वभावयुक्त उत्तम स्त्री ! तू (पत्नीव) जैसे यज्ञादि कर्म में साथ रहनेवाली विद्वान् की स्त्री (ववृधध्यै) वृद्धि करने को अर्थात् गृहस्थाश्रम आदि व्यवहारों के बढ़ाने को (पूर्वहूतिम्) जिसका पहिले बुलाना होता अर्थात् सब कामों से जिसकी प्रथम सेवा करनी होती उस अपने पति को स्वीकार कर (पुरुधा) जो बहुत व्यवहार वा पदार्थों की धारणा करनेहारे (विदाने) जाने जाते उन (उषासानक्ता) रात्रिदिन के समान वर्त्ते वैसी वर्त्ता कर तथा (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (हिरण्यैः) सुवर्ण सी चिलकती हुई ज्योतियों और (श्रिया) उत्तम शोभा से (सुदृशी) जिस तेरा अच्छा दर्शन वह (अत्कम्) कुएं के समान (व्युतम्) अनेक प्रकार बुने हुए विस्तारयुक्त वस्त्र को (वसाना) पहिनती हुई (स्तरीः) जैसे कलायन्त्रादिकों के संयोग से ढाँपी हुई नाव हों (न) वैसी निरन्तर हो ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पतिव्रता स्त्री विद्यमान अपने पति को प्रसन्न करती और स्त्रीव्रत अर्थात् नियम से अपनी स्त्री में रमनेहारा पति जैसे दिन-रात्रि सम्बन्ध से मिला हुआ वर्त्तमान है, वैसे सम्बन्ध से वर्त्तमान कपड़े और गहने पहिने हुए सुशोभित धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् प्रयत्न करे ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ दम्पत्योर्व्यवहारमाह ।

अन्वय:

हे सति स्त्रि त्वं पत्नीव ववृधध्यै पूर्वहूतिं पतिं स्वीकृत्य पुरुधा विदाने उषासानक्तेव वर्त्तस्व सूर्यस्य हिरण्यैः श्रिया च सदृशी अत्कमिव व्युतं वसाना सती स्तरीर्न सततं भव ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पत्नीव) यथा विदुषी स्त्री (पूर्वहूतिम्) पूर्वा हूतिराह्वानं यस्य तम् (ववृधध्यै) वर्धयितुम्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुस्तुजादित्वाद्दीर्घश्च। (उषासानक्ता) रात्रिदिने (पुरुधा) ये पुरून् बहून् धरतस्ते (विदाने) विज्ञायमाने (स्तरीः) कलायन्त्रादिसंयोगेनास्तारिषत यास्ता नौकाः (न) इव (अत्कम्) कूपमिव (व्युतम्) विविधतयोतं विस्तृत वस्त्रम् (वसाना) परिदधती (सूर्यस्य) सवितुः (श्रिया) शोभया (सुदृशी) सुष्ठुदर्शनं यस्याः सा (हिरण्यैः) ज्योतिभिरिव ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। पतिव्रता सन्तं पतिं प्रीणाति स्त्रीव्रतः पतिः स्त्रियं च तौ यथाऽहोरात्रः सम्बद्धो वर्त्तते यथा वर्त्तमानौ वस्त्रालङ्कारैः सुशोभितौ धर्म्ये व्यवहारे यथावत्प्रयतेताम् ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. पतिव्रता स्त्री आपल्या पतीला प्रसन्न करते व स्त्रीव्रत पती अर्थात आपल्या पत्नीत रमणारा, दिवस व रात्रीच्या संबंधाप्रमाणे असतो. तशा संबंधाप्रमाणेच वस्त्र व अलंकाराने सुशोभित होऊन धर्मयुक्त व्यवहारात प्रयत्न करावा. ॥ २ ॥